Wednesday, 27 August 2025

अकृतज्ञ/डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' की लघुकथा

[प्रतिष्ठित समाचार पत्र दैनिक जागरण के साहित्यिक पुनर्नवा पृष्ठ पर 4 नवम्बर, 2013 को प्रकाशित]
बस में बहुत ज़्यादा भीड़ थी। बैठने के लिए तो दूर की बात, ठीक से खड़े होने तक की जगह नहीं थी। कुछ देर बाद बस अगले ठहराव पर रुकी। वहाँ से एक दम्पति चढ़े, उनके साथ एक दुधमुँहा भी था। अपनी सीट पर आराम से बैठे विमल बाबू से न रहा गया और वे उठ खड़े हुए। महिला उनकी सीट पर बैठ गयी। कुछ देर बाद विमल बाबू के घुटनों में असहनीय दर्द होने लगा...ख़ैर वे किसी तरह खड़े रहे, उन्हें तसल्ली इस बात की थी कि उनकी वज़ह से दुधमुँहे बच्चे को लिये एक औरत की यात्रा आसान हो गयी। इसी सोच-विचार के बीच एक स्थान पर बस रुकी, शायद कोई गाँव था, उस औरत के ठीक बगल में बैठा व्यक्ति उतरने के लिये उठ खड़ा हुआ। विमल बाबू जैसे ही बैठने के लिए सीट की ओर झुके, उस महिला ने आँखों के इशारे से अपने पति को बैठ जाने के लिये कहा...यद्यपि वह व्यक्ति विमल बाबू के झुकने से पहले ही उस जगह बैठने की तैयारी में था।

"अरे बेटा, मुझे बैठ जाने दो, घुटनों...", विमल बाबू बस इतना ही कह सके थे कि वह आँखें तरेर कर बोला, बाबूजी कुछ तो लिहाज़ कीजिए। बगल में बैठने के लिए आपको मेरी ही औरत मिली है?"

"नहीं-नहीं, मेरी बात तो सुनो..." वह धृष्ट पति लाल-पीला होते हुए कुछ कहने ही जा रहा था कि उसकी बीवी उसे शान्त कराते हुए बोली- "आप चुपचाप बैठ जाइए न, क्यों किसी के मुँह लगते हो। सफ़र में तरह-तरह के लोग मिलते हैं। वह आराम से बैठ गया। विमल बाबू अपनी कर्तव्य-परायणता पर कुछ ज़्यादा ही पछताने लगे।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.) 
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