राघव के विवाह में अब एक दिन शेष बचा था। तमाम नज़दीकी रिश्तेदार आ चुके थे। लेडीज़ संगीत और डिनर के पश्चात आगन्तुक बातचीत में मशग़ूल थे। अचानक बातचीत का मिज़ाज बदला और बात यहाँ पर आकर टिक गयी कि अपने ब्वायफ़्रेन्ड के साथ लौट रही दिल्ली में रात साढ़े बारह बजे जिस लड़की के साथ रेप हुआ; उसके लिए कौन दोषी है, समाज या संस्कार। चर्चा में स्त्री-पुरुष, युवा तथा वृद्ध सभी शामिल थे। विनीता चाची बोल पड़ीं- "बताओ दिल्ली में तो औरतें सुरक्षित ही नहीं।" सन्तो मौसी ने भी सहमति में सिर हिलाया। रमेश फूफा तैश में आकर बोल पड़े- "सरकार ही निकम्मी है, हाथ में हाथ धरे बैठी है। मेरा वश चले तो शोहदों को ही नहीं, उनके माँ-बाप को भी फाँसी दे दूँ।" धीर-गम्भीर रहने वाले राजू चाचा ने जब अपनी राय व्यक्त की- "उस लड़की को इतनी रात गये क्या ज़रूरत थी बाहर जाने की, क्या सिनेमा देखना इतना ज़रूरी था?" राजू चाचा पर सवालों के 'बाउंसर' दग़ने लगे। पहला 'बाउंसर' चाची ने ही दाग़ा- "औरतों को गुलाम बनाकर रखना चाहते हो क्या?" और लोगों के भी 'बाउंसर' पड़ने लगे- "मर्दों की सोच ही घिनौनी होती है।" "क्या महिलाओं को आज़ादी का कोई हक़ नहीं है?" राजू चाचा अरे-अरे करते 'डिफेंसिव' हो गये थे कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई पढ़ रही अल्पना ने भी अपनी बात कह दी- "चाचू अपनी सोच बदल लो, 'थिन्क पाज़िटिव'। हम क्या पहनते हैं, क्या खाते हैं, कहाँ जाते हैं, किसके साथ घूमते हैं...ये सब पुराने ज़माने की बातें हैं। अब लड़के-लड़की में कोई अन्तर नहीं है।" अल्पना को वहाँ मौजूद 'माडर्न' सोच का भरपूर समर्थन मिला। चाचा 'बोल्ड' हो चुके थे कि चाची ने फिर हुंकार भरी- "कोई कड़ा क़ानून बनना चाहिए।" तभी दुलारे बाबा ने सबको शान्त कराते हुए पूछा- "मैं मानता हूँ कि इन बलात्कारियों को फाँसी दे देनी चाहिए और औरतों को आज़ादी भी मिलनी चाहिए, लेकिन यहाँ मौजूद सभी अभिभावकों से मैं जानना चाहता हूँ कि 'माडर्ननिटी' के इस युग में कितने ऐसे लोग हैं, जो अपनी बेटी को उसके ब्वायफ़्रेन्ड के साथ रात नौ से बारह बजे का फ़िल्म शो देखने के लिए भेजेंगे?" सन्नाटा पसरा हुआ था।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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