Monday, 30 December 2019

शीत विशेष हाइकु : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

1-
पढ़े पहाड़ा
दिन-दिन दोगुना
गुलाबी जाड़ा।

2-
काँपती काया
धूप ने पोछे आँसू
हँसे पिताजी।

3-
शीत की सत्ता
रानी अब 'गलन'
'कोहरा' राजा।

4-
सर्द हवाएँ
मौसम मनमानी
वाचाल मूक।

5-
बर्फीला पथ
धुन्ध ने रोक दिया
सूर्य का रथ।

6-
दूर धूप से
रहे तो जान पाये
रिश्ता धूप से।

7-
वांछा शीत की
चार दिनों में ऊबे
अति शीत की।

8-
भोर कोहरा
सिकुड़े हुए दिन
रात कोहरा।

9-
मुदित मन
बारिश-गर्मी-सर्दी
हँसे बिटिया।

10-
भयाक्रान्त भू
गढ़े नये मानक
भीषण ठण्ड।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com

Thursday, 19 December 2019

आत्मतत्व का चिन्तन कहता - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

आओ हर लूँ पीर तुम्हारी
बैठो मेरे पास।

जूही चम्पा गुलबहार तुम
लैला जुलियट हीर,
तुम ही चंदा तुम वसुंधरा
देती मन को धीर,
तुम जीवन की आशा सजनी
तुम निर्मल विश्वास।

मैं गाता हूँ तुम होकर जब
तुम हो जाती वीर,
मन पावन हो जाता ऐसे
ज्यों गंगा का नीर,
मत उदास तुम रहो सहेली
तुम मेरी हर आस।

आत्मतत्व का चिन्तन कहता
मिट्टी सकल शरीर,
नेह प्रीति की गढ़े कहानी
चुप रहती शमशीर,
पार लगायें राधाकिशना
सब उनके ही दास।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
veershailesh@gmail.com


Wednesday, 4 December 2019

विश्व हाइकु दिवस पर 10 हाइकु : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

1-
नदी झूमती
पार कर त्रासदी
नभ चूमती।

2-
खिलौने लाये
चहक रहे बच्चे
पापाजी आये।

3-
याद आ गये
गेंदा-गुलाब-जूही
हँसी बिटिया।

4-
पुराना गया
शुद्ध पर्यावरण
सर्वस्व नया।

5-
पूरे हो गये
पहाड़-से सपने
पिता खो गये।

6-
जीवन-मृत्यु
आरोही-अवरोही
शाश्वत सत्य।

7-
सपने धुआँ
हाथ हो गये पीले
रोटी-बेलन।

8-
छाये बादल
उमस छू-मंतर
मन-कमल।

9-
अहं को ढोतीं
अनाचार की साक्षी
सदियाँ रोतीं!

10-
नारी ने किया-
सत्य का साक्षात्कार
जग को चुभा!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

Wednesday, 27 November 2019

फिर गैलरी में तुम्हारे चित्र : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

फिर गैलरी में तुम्हारे चित्र
(10 क्षणिकाएँ)
----------------------------
1-
आओ लिख दो
मेरे हृदय पर
संकल्पों का लेखा-जोखा
और टाँक दो
मासूमियत के धागे से
नेह के मधुर पल!

2-
मेरे और तुम्हारे
होने का यथार्थ
नहीं टाँक सकेगी
समय की स्याही
उन पलों की
चुप्पी का साम्राज्य
देता है काल की
असीमित परिधि को
चुनौती!

3-
तुम्हारे प्रत्येक आलेख में
अंकित होगा
मेरा अस्तित्व,
किन्तु आने वाली पीढ़ी
नहीं बाँच सकेगी
हमारी प्रीति के अभिलेख!

4-
तुम मेरे हृदय में हो
तुम मेरी चेतना में हो
जानकार यह
मौन है आकाश
कि तुम्हारी स्मृतियाँ
अधिक हैं
उसके विस्तार से!

5-
मोबाइल की 'टोन' बजी
'इनबॉक्स' से 'काॅल-डिटेल्स' तक
खँगाला सब कुछ
मैसेज़/मिस्ड-काॅल
कुछ भी नहीं।
जाकर 'गैलरी' में
फिर से देखे
तुम्हारे हृदयस्थ चित्र!

6-
सम्भावना समय की
गति यथार्थ की
मैं खोजता हूँ
स्वयं में तुम्हें!

7-
यकायक
छलक उठते हैं
हृदय में असंख्य भाव
तुम पढ़ लेती हो सब,
मौन विवशता है
जानता हूँ मैं!

8-
विमर्श का प्रत्येक कोण
हमें देता है
नयी ऊर्जा,
भावों का अतिरेक
ऊर्जा के समानुपात में
हृदय में समानान्तर
भर देता है
नेह की पोटली!

9-
तुम आयी और चली गयी
यह कहकर कि
"तुम प्रबल प्रवाहित भाव भरे"
और मैं तुम्हारे
वापस आने की प्रतीक्षा में
पिरोता रहा क्षणिकाओं में
अपने मन की बात!

10-
तुम अप्सरा नहीं
प्रेरणा हो
तुम्हारे होने का अर्थ
भलीभाँति
समझती हैं
ये क्षणिकाएँ
जैसे समझती हो
मेरे होने का अर्थ तुम!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
27/11/2019
Hindi Micropoetry of
Dr. Shailesh Gupta Veer
Email: doctor_shailesh@rediffmail.com
[क्षणिका]

Friday, 18 October 2019

अमिट यथार्थ : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

कोमल कलाइयों में
खनकती
लाल-फिरोजी चूड़ियाँ
अद्भुत आभायुक्त
खनकते कंगन
शंख-से कानों में
दमकते
स्वर्णशोणित कुण्डल
और पैरों में
छन-छन करती पायल
मस्तक पर बिखरी लटें
और मेरी दुनिया को समेटे
प्यारी-सी
छोटी-सी
बिंदिया
होठ
गुलाब की पंखुड़ियाँ
सिन्धु को समेटे
मुझे निहारती दो आँखें
खींचती हैं अपनी ओर
बुलातीं हैं पास अपने
गुलाबी अम्बर में लिपटी धरा
धीरे-धीरे
पूरे अम्बर को
गुलाबी करते
अम्बर अब अम्बर कहाँ
एकरूप हो गया है
धरा के अलौकिक स्पर्श की
संकल्पना में
जानते हुए भी कि
संकल्पना
कभी यथार्थ का आकार नहीं लेगी
धरा बुलायेगी
और अम्बर यों ही
बुनता रहेगा सपने
यही है
युगों-युगों का
अमिट यथार्थ।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com

Thursday, 26 September 2019

ड्यु सेल्फ़ी : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

किचन की खिड़की से
मैंने निहारा
प्रियतमा को चुपचाप
बिखरी लटों के बीच से
उसने भी निहारा मुझे
एक हो गयी नज़र
मुस्कुराये हम दोनों
एक लम्बी खिलखिलाहट ने
तोड़ दी चुप्पी -
और कोई काम नहीं क्या
जब देखो तब
चले आते हो दबे पाँव
देखो न जल गयी रोटी
जाते हो या...
और लटों को किनारे कर
साड़ी के पल्लू से
पोंछ ली
माथे का पसीना
बेलने लगी फिर एक रोटी
मैं निहारता रहा -
विश्वास की आँच में
दमदमाता अलौकिक सौन्दर्य
नेह की लोई में सनी
निश्छल मुस्कान
चेतना ने देखा -
संकल्प के चूल्हे में पका
जन्म-जन्मांतर का सानिध्य
सोचता रहा -
बाधाओं के तवे पर
आत्मविश्वास के चिमटे ने
पकड़ रक्खे हैं सभी सपने
जिन्हें साकार होना ही है
हमारी ज़िद के आगे
यकायक
उसने देखा मुझे
लजाये कपोल
बुदबुदाये होंठ
हे भगवान
गये नहीं तुम अभी
मत बुनो ख़्वाब
खड़े-खड़े
आओ
भरकर बाँहों में
ले लो एक सेल्फ़ी
ड्यु है कब से!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
26/09/2019
doctor_shailesh@rediffmail.com

Saturday, 14 September 2019

हिन्दी दिवस : दस क्षणिकाएँ - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

1-
जो लोग
हिन्दी के नाम पर
चाँदी काटते हैं,
वे भी अब
अपने बच्चों को
अंग्रेज़ी में
डाँटते हैं!

2-
अंग्रेज़ी का रुतबा
कब घटा है,
बस उत्तर धड़ा
दक्षिण धड़ा
आपस में
बँटा है!

3-
हिन्दी के कवि को
पत्नी रोज़ तोलती है,
जब अंग्रेज़ी में
'शटअप' बोलती है!

4-
हम प्रतिवर्ष
हिन्दी दिवस
मनाते हैं,
और फिर
सालभर
अंग्रेज़ी की
बंसी बजाते हैं!

5-
नयी पीढ़ी के लोग
सुबह से शाम तक
अंग्रेज़ी में बड़बड़ाते हैं,
ये बात और है
आधा ख़ुद ही नहीं
समझ पाते हैं!

6-
वे/हिन्दी में सोचते हैं
हिन्दी में हँसते-गुस्साते हैं,
विदेशी अनुभव
अंग्रेज़ी में सुनाते हैं!

7-
दादी भी जब से
सी फॉर कैट
और डी फॉर डॉग
जानने लगी है,
अंग्रेज़ी में बतियाने लगी है!

8-
देश का उत्तरोत्तर
विकास हो रहा है,
यह बात और है
हिन्दी का ह्रास हो रहा है!

9-
अंग्रेज़ी के कद्रदान
अपना भाषण
हिन्दी में
दूसरों से लिखा रहे हैं,
हिन्दी दिवस
मना रहे हैं!

10-
अगले वर्ष हम
फिर हिन्दी दिवस मनायेंगे,
और चद्दर तानकर
साल भर के लिए
फिर सो जायेंगे!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
editorsgveer@gmail.com 


Sunday, 1 September 2019

*मन का रावण मरा नहीं है* : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

हुआ सत्य से झूठ पराजित, और दैन्य से दम्भ।
पूर्ण हुआ अभियान विजय से, कष्टों से प्रारम्भ।
उन्हें पूजती दुनिया सारी, संस्कृति के स्तम्भ।
उनसे चलती श्वास सृष्टि की, उनसे ही आरम्भ।।

जो समष्टि हित जीते हरदम, वे बन जाते राम।
मन का रावण मार सके जो, वे कहलाते राम।
धरती डोले जब असुरों से, तब आते हैं राम।
अहम् शून्य मर्यादा भारी, यही बताते राम।।

आज दशहरे पर फिर से, वही तमाशेबाज़ी।
चंदा करके रावण बनता, होती आतिशबाज़ी।
आज अमावस फिर सोया है, खाकर बासी भाजी।
बोलो कैसे पर्व मनाऊँ, मन कैसे हो राजी।।

भिक्खू का परिवार सड़क पर, फटेहाल पहनावा।।
फूँक दिया था घर रज्जू ने, लल्लन का है दावा।
जैसे-तैसे जेल भी पहुँचे, ज़रा नहीं पछतावा।
मन का रावण मरा नहीं है, करते ढोंग दिखावा।।

बल-वैभव का करें प्रदर्शन, अनगिन ऐसे रोग।
जैसे तैसे जो भी आये, करते धन का योग।
अपकर्मों से नाता जिनका, सुरा, सुंदरी, भोग।
फूँक रहे हैं रावण पुतले, रावण जैसे लोग।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com

Tuesday, 6 August 2019

तीखी बहुत है धारा नदी की - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

तीखी बहुत है धारा नदी की
तिस पर तुम्हारा ~ यों मचलना।

तुम हो धड़कन हृदय की
तुम स्थायी संचार हो
इस अनमने मन का
एक तुम उपचार हो
रिमझिम फुहारें
मौसम सुहाना
और तारों का चमकना,
तीखी बहुत है धारा नदी की
तिस पर तुम्हारा ~ यों मचलना।

तुम चन्द्रिका हो चन्द्र की
लालिमा सूर्य की
हो परी अम्बर से आयी
सुनो ध्वनि तूर्य की
सुबह प्रश्न था तुम्हारा
प्रेम कहते हैं किसे
अब समझना,
तीखी बहुत है धारा नदी की
तिस पर तुम्हारा ~ यों मचलना।

श्वास बनकर चल रही तुम
इतने पास हो
साज जीवन के तुम्हीं से
सच्ची आस हो
कहते किसे हैं
अब समझा
मैं फिसलना,
तीखी बहुत है धारा नदी की
तिस पर तुम्हारा ~ यों मचलना।

प्रणय अपना हो सके शायद
अन्तर में गहरे बस सकूँ शायद
अम्बर धरा से मिल सके शायद
महाकाव्य एक नया लिख सकूँ शायद
संशय तनिक हो
सुन लेना सखी
उर का धड़कना,
तीखी बहुत है धारा नदी की
तिस पर तुम्हारा ~ यों मचलना।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'


Wednesday, 31 July 2019

एक 'पूस की रात' - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

अमर कथाएँ दी हमें, गढ़े अमर किरदार।
मुंशी जी साहित्य के, हैं सच्चे सरदार।।

कथाकार सिरमौर वे, उपन्यास सम्राट।
प्रेमचंद बस एक हैं, जैसे व्योम विराट।।

लिखे लेखनी सच सदा, याद रहे यह बात।
सदियों पर भारी पड़ी, एक 'पूस की रात'।।

हरी नोट में ढूँढ़ता, अन्न-वसन भरपूर।
मिला माॅल में कल मुझे, फिर हामिद मज़बूर।।

क़दम हमारे चन्द्र पर, पड़ने को तैयार।
होरी बेबस आज भी, धनिया भी लाचार।।

दुनिया के दुख-दर्द का, जब-जब ढूँढ़ा छोर।
होरी-हल्कू तब यहाँ, मिले मुझे हर ओर।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
31/07/2019

Monday, 1 July 2019

*एक वही है सत्ता* - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

*एक वही है सत्ता*
- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
-----------------------
सूरज, चंदा, तारे, धरती, भँवरे, जुगनू, फूल। 
पेड़, परिन्दे, पोखर, पर्वत, सागर, नदिया, कूल। 
सारे जग में सत्ता जिसकी, सारे जग का मूल।
कण-कण में है वास उसी का, बिन उसके सब धूल।।

अन्न उसी से, पानी उससे, उससे वेतन-भत्ता। 
चाहे महल-क़िले हों चाहे, मधुमक्खी का छत्ता।
उसकी इच्छा नहीं अगर तो, हिलता कभी न पत्ता। 
जीवन-मौत उसी के हाथों, एक वही है सत्ता।।

एक वही 'अंपायर' यारों, एक वही इकतार।
सब बौने हैं उसके आगे, एक वही सरदार।
शीश झुकाओ उसके आगे, जीवन के दिन चार।
उससे अपनी विनती इतनी, हमें लगाये पार।।

शानो-शौक़त दुनियादारी, रहन-सहन पहनावा।
अपना रोना-हँसना सब कुछ, बस है एक छलावा।
एक वही अस्तित्ववान है, छोड़ो ढोंग-दिखावा।
अपकर्मों से तौबा कर लो, नहीं बाद पछतावा।।

साधू-सन्त-कलंदर हरदम, करते जिसका ध्यान।
छोड़ो मन में पाप बसाना, गाओ उसके गान।
जिसको 'मैं'-'मैं' करते हो तुम, वह केवल अभिमान।
पालनहार वही है जग का, उससे सकल जहान।।

इन्द्रधनुष के रंग उसी से, नीला हो या पीला। 
बारिश, गर्मी, सर्दी हो या, मौसम रंग-रँगीला।
कार्य वही है, कारण भी वह, उसकी ही सब लीला।
उसकी अनुपम आभा से ही, जग दिखता चमकीला।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
doctor_shailesh@rediffmail.com

Monday, 17 June 2019

जग ने कहा कबीर - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

कोई बोले फक्कड़ी, कोई कहे कबीर।
एक रूप में सब छिपे, साधू, संत, फ़कीर।।

ढाई आखर बाँचता, हरता जग की चीख।
कहते उसे कबीर हैं, देता अनुपम सीख।।

इधर-उधर भटका बहुत, बाक़ी बचा न धीर।
जब मन मुट्ठी में धरा, जग ने कहा कबीर।।

छल-प्रपंच से जो परे, करे झूठ पर चोट।
जग में वही कबीर है, मन में तनिक न खोट।।

पीड़ा सबकी मेटता, देता सच्ची राह।
उसका नाम कबीर है, जिसे न कोई चाह।।

चिन्तन अमर कबीर का, देता ज्ञान अखंड।
जिसके आगे हो गया, खंड-खंड पाखंड।।

पाकर थोड़ी बुद्धि मैं, बन बैठा हूँ 'वीर'।
समझदार होता अगर, कहते लोग कबीर।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
15/06/2019

Saturday, 18 May 2019

तब जाकर कोई बुद्ध हुआ - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

(1)
पीड़ा से चित् जब क्रुद्ध हुआ।
तृष्णा से जीभर युद्ध हुआ। 
मन दुबक गया यों मुट्ठी में,
तब जाकर कोई बुद्ध हुआ।।

(2)
जब भी अंतस् अवरुद्ध हुआ।
दृढ़ संकल्पों से शुद्ध हुआ। 
तब आर्य सत्य की खोज हुई,
तब जाकर कोई बुद्ध हुआ।। 

(3)
माया से क्षुब्ध विरुद्ध हुआ।
तब दर्शन और प्रबुद्ध हुआ। 
आष्टांगिक मार्ग निकल आये,
तब जाकर कोई बुद्ध हुआ।।

(4)
भ्रम में आबद्ध अशुद्ध हुआ। 
तप कठिन किया अनिरुद्ध हुआ।
निर्वाण मिला जब जीते जी,
तब जाकर कोई बुद्ध हुआ।।

(5)
जब मार्ग सत्य का रुद्ध हुआ।
अन्याय-नीति में युद्ध हुआ।
दुख से मुक्ति मिली जन-जन को,
तब जाकर कोई बुद्ध हुआ।।

(6)
ध्यान-कर्म से मन शुद्ध हुआ।
प्रज्ञा से और विशुद्ध हुआ।
जीवन-साधन जब हुए उच्च, 
तब जाकर कोई बुद्ध हुआ।।

(7)
जब आत्मतत्व परिरुद्ध हुआ।
जीवन का वेग निरुद्ध हुआ।
दर्शन ने पंचशील उपजे,
तब जाकर कोई बुद्ध हुआ।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/05/2019
veershailesh@gmail.com 

Monday, 6 May 2019

कविता दस्तावेज़ है - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

उसने भेजी
एक प्यारी-सी तस्वीर
ताकि
भागदौड़ के बीच
चलती रहे कविता।

वह जानती है कि
तस्वीर देखकर
मैं लिखूँगा
ज़रूर कोई कविता।

वह जानती है कि
कविता देगी ऊर्जा
मुझे और उसे
हम दोनों को।

वह जानती है कि
ज़रूरी है कविता
आपाधापी के बीच
मन को तरोताज़ा
रखने के लिए।

वह जानती है कि
कविता ज़रूरी है
वर्तमान और भविष्य के लिए।

वह जानती है कि
कविता दस्तावेज़ है
मेरे और उसके होने का,
समय और गाढ़ी अनुभूति को
रेखांकित करती ये कविताएँ
युगों तक नेह और संवेदनाओं का
प्रतिमान बनी रहेंगी
वह जानती है यह बात बख़ूबी!

मैं जानता हूँ उसके मन की ये बातें
तभी तो उसकी हर एक तस्वीर
प्रेरणा है मेरे लिए!!!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
फतेहपुर/उत्तर प्रदेश 
16/04/2019



Tuesday, 16 April 2019

उन गीतों को तुम स्वर देना : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

सखी, तुम अपने हिय की पीर कहो
मैं गीतों में ढालूँगा,
उन गीतों को तुम स्वर देना
सदियों तक गाये जायेंगे।।

आने वाली पीढ़ी
सीख सकेगी
दर्द बाँचना
और दंश से बाहर आकर
खुले गगन में जीना।
सखी, तुम अपने हिय की पीर कहो
मैं गीतों में ढाालूँगा 
उन गीतों को तुम स्वर देना
सदियों तक गाये जायेंगे।।

काँटों से लड़कर
फूल चूमना
ये भी सब सीखेंगे
जब सबकुछ हो अपने विरुद्ध
कैसे जीता जाता महासमर।
सखी, तुम अपने हिय की पीर कहो
मैं गीतों में ढालूँगा
उन गीतों को तुम स्वर देना
सदियों तक गाये जायेंगे।।

जब पीड़ा समुद्र-सी गहरी हो
तब मुस्कानों का अभ्यास निरन्तर
कैसे सम्भव है
इस उपक्रम को सीख सकेंगे
आने वाले कल के लोग।
सखी, तुम अपने हिय की पीर कहो
मैं गीतों में ढाालूँगा 
उन गीतों को तुम स्वर देना
सदियों तक गाये जायेंगे।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
फतेहपुर/उत्तर प्रदेश 
16/04/2019




Monday, 15 April 2019

मैं ऑफ़लाइन ज़रूर था : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

मैं ऑफ़लाइन ज़रूर था
(7 क्षणिकाएँ)
---------------------------
1-
देखो न
मैं चल रहा कब से
तुम्हारे साथ-साथ
परछाई की तरह,
और तुम
ढूँढ़ रही मुझे
यहाँ-वहाँ!

2-
मैं ऑफ़लाइन ज़रूर था
पर ख़यालों में तुम थी
फुल नेटवर्क की भाँति,
तुम मन के मैसेन्जर में
रची-बसी हो
यों,
जैसे-
चन्द्र के साथ चन्द्रिका!

3-
लिख-लिख कर
मत मेटो
मन की गाढ़ी
अनुभूतियाँ,
आने दो हृदय के
उस पार से
इस पार तक
शब्दों की नाव में
नेह के परिन्दे!

4-
राधा
मत कहना
मैया से कुछ भी
इन पलों को जी लो
आओ
एक इन्द्रधनुष
रच दें
अन्तर में
हम-तुम!

5-
"अभी आयी मैं"
कहकर
चली गयी,
मैं ढूँढ़ता रहा
नदी की धार में
चन्द्रमुखी का प्रतिबिम्ब!

6-
मैंने पुकारा
आ गयी मही
निहारा फिर
बारम्बार
उस पार धरा
इस पार बेचैन आकाश!

7-
सहेली ने कहा-
हर शब्द कविता
संवेदना लबालब
चलो
दर्पण के सामने
एक साथ निहारें
एक-दूजे को,
और तुम
फिर लिखना एक नज्म
मेरी ख़ूबसूरती पर!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
15/04/2019
Hindi Micropoetry of
Dr. Shailesh Gupta Veer
Email: doctor_shailesh@rediffmail.com
[क्षणिका]

Thursday, 11 April 2019

छू-मंतर : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

छू-मंतर
-----------
आ गयी तुम
कैसी हो
सब ठीक-ठाक?
और थकान
ढेर सारी
पास आओ
बैठो
मेरी ओर देखो
अहा, तुम कितनी खूबसूरत हो
यों चेहरे पर
थकान की सिकन
शोभा नहीं देती
मुस्कुराओ
एक पोज ले लूँ तुम्हारी
नहीं ऐसे नहीं
एक क्लिक और
हाँ, ऐसे ही
अब आओ
चलो किचिन में
सरप्राइज़
वाऊ
कोल्ड कॉफी
हाँ, डियर!
चलो साथ बैठकर पीते है
सारी थकान
छू-मंतर!!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
11/04/2019

Sunday, 31 March 2019

ख़ूबसूरत पलों की एक सेल्फ़ी : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

आओ बैठो
मेरे पास
बातें करें जी भर
यहाँ-वहाँ की
हम दोनों।

आओ बैठो
कुछ देर
साथ-साथ जी लें
सुकून के कुछ पल
तुम अपनी सुनाओ
मैं अपनी।

दिनभर की आपाधापी में
आज तुम कहाँ हँसी जी भर
मैं सोच रहा था
जब तुम आओगी
कहूँगा-
तुम्हारे लिए तोड़ लाऊँ
गगन से सितारे
और तुम कहोगी
हर बार की तरह
पागल!
धरती पर ही रहो
यहीं मेरे पास
मत जाओ कहीं
नहीं चाहिए मुझे सितारे-वितारे!
लो तुम्हारे चेहरे पर आ गयी
नैसर्गिक हँसी,
खिलखिलाने लगी तुम।

ए सुनो
आओ इन ख़ूबसूरत पलों की
ले लें एक सेल्फ़ी
तुम हँसो जी भर!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
28/03/2019

Tuesday, 26 March 2019

जीत पर इतराते कंगन : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

तुम्हारे कंगन की
अरुणिम आभा से
झंकृत है समूचा परिवेश

मनोमस्तिष्क में गूँज रहे हैं
तुम्हारे ये कंगन
हृदय में धड़क रहे हैं
तुम्हारे ये कंगन
श्वासों में गतिमान हैं
तुम्हारे ये कंगन

मत घुमाओ
अपनी कलाई को
यों बारम्बार
कंगन की लालिमा
खींच रही है मुझे
तुम्हारी ओर,
इतना नि:शक्त नहीं हुआ था पहले कभी

अन्तर को
निरन्तर
बेधते ही
जा रहे हैं,
तुम्हारे ये कंगन
मानो कंगन नहीं
हों काम के दूत

तुम्हारी गोरी कलाइयों का
पाकर साथ
कंगन हो गये हैं
रतिराज के पुष्पबाण
अब तक जान चुके हैं
शायद ये भी
मैं हो गया हूँ सामर्थ्यशून्य

देखो इन कंगनों को
कैसे इतरा रहे हैं
अपनी जीत पर,
और तुम
फिर घुमा रही हो
कभी ये
कभी वो
अपनी गोरी कलाई!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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Monday, 25 March 2019

क्षणिका/बारिश चली आयी : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'


तुमसे मिलने बारिश स्वयं चली आयी
और तुम
देखो न मौसम का जादू
आओ बैठते हैं
गंगा के तट पर
ढेर सारी बातें करेंगे
हम-तुम!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
25/03/2019

अनन्तता की परिधि में - डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

अनन्तता की परिधि में
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आत्मानुभूति की कोई भाषा नहीं होती
देह के बन्धन से मीलों दूर
हर संशय से मुक्त है यह निराकार नेह
अलौकिक है तुम्हारा सानिध्य
मैं विचरण कर रहा हूँ अनन्तता की परिधि में
धरती गा रही है सुरीला गीत
मुट्ठी में है आकाश!
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
25/03/2019


मन मयूरपंख हो गया है : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'


आज तुमने फिर
पहन रक्खे हैं
अपने कानों में
मेरे पसन्दीदा
मयूर पंख वाले कुण्डल।

आज फिर तुम
मुझे पागल कर दोगी
तुम्हारी चितवन
मेरे अन्तर में
अनन्त आशाओं के
जाल बुनती है,
मत देखो ऐसे।

क्या नदी, क्या झील
क्या समन्दर
सब कुछ
कुछ भी नहीं
तुम्हारे इन नील-नयनों के समक्ष।

कपोलों पर थिरकती लटें
और ये गुलाबी रजपट
जी करता है
पास आकर
भर लूँ तुम्हें
अपनी बाहों में
क्या तुम जानती हो -
मेरा बोध
तुम्हारे सौन्दर्य में
समाहित हो गया है
अद्भुत है यह अहसास
हाँ, सखी!
मन मयूरपंख हो गया है
और झूम रहा है
ब्रह्माण्डरूपी कर्ण में
बनकर कुण्डल
हाँ...,

तुम सुनती ही नहीं
मेरी धड़कनें
कब से
तुम्हें पुकार रही हैं,
और तुम
बस
बस
मन्द-मन्द मुस्कुराती ही रहोगी
या पास भी आओगी,
धड़कनें ख़ामोश हों
इससे पहले आओ
गले लगा लो,
आकाशगंगाएँ
आतुर हैं
हमारे मिलन के
महा उत्सव को
निहारने के लिए!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
फतेहपुर,  उत्तर प्रदेश 
25/03/2019

Sunday, 24 March 2019

यह गुलाबी वसन तुम्हारा : डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

तुम्हारा यों एकटक देखना-
जैसे प्रकृति निहार रही हो
समन्दर की चंचल लहरों को।

तुम्हारा यों एकटक देखना-
जैसे मही को
टकटकी लगाये
देख रहा हो अनन्त आकाश।

तुम्हारा यों एकटक देखना-
मन करता है
बादलों की ओट से
बस देखता रहूँ तुम्हें।

समन्दर की चंचल लहरें गुलाबी हैं
सारा आकाश गुलाबी है
बादलों का रंग भी आज गुलाबी है
जानती हो क्यों?
तुम्हारे गुलाबी वसन की आभा
तुम्हारे गुलाबी वसन की ख़ुशबू
तुम्हारे गुलाबी वसन का कौतुक
सबने मिलकर
सृष्टि को कर दिया है गुलाबी,
और मेरा मन
तुम तो जानती ही हो सहेली
कब से गुलाबी है!
मत देखो यों एकटक-
तुम्हारे सौन्दर्य की
अद्भुत छटा ने
मेरे रोम-रोम को वसन्त कर दिया है!

इन अलकों-पलकों ने
बन्दी बना रक्खा है मुझे
और मेरे मन को,
मैं अब
मैं नहीं हूँ
और तुम-
तुम भी शायद तुम नहीं।
हाँ सखी,
तुम्हारी मासूमियत के समक्ष
नतमस्तक हूँ मैं।

छोड़ो स्वयं की उँगलियों से
स्वयं की उँगलियाँ पकड़ना,
आओ -
थाम लो इन हाथों को,
चलो साथ अनन्त काल तक।

तारे एक-दूजे के कान में
फुसफुसा रहे हैं
आज की रात
टिमटिमाएँगे जी भर
उन्हें भी प्रतीक्षा है
महामिलन की,
कुछ सुना तुमने
या देखती रहोगी
यों ही एकटक...!

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
ईमेल- veershailesh@gmail.com 
24/03/2019